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CTET Balvikas bikas kee avdhrna aur iska adhigm se smbndh | CTET Concet of Development and its Relationship with learning

विकास की अवधारणा और इसका अधिगम से सम्बन्ध (Concept of Development and its Relationship With Learning )


 विकास की अवधारणा (Concept of Development ) :-

 >> विकास की अवधारणा विकास जीवनपर्यन्त चलने वाली एक निरन्तर प्रक्रिया है।

>> विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक (physical) क्रियात्मक (motor) संज्ञानात्मक (cognitive) भाषागत् (language) संवेगात्मक

(emotional) एवं सामाजिक (social) विकास होता है।

अरस्तू के अनुसार, “विकास आन्तरिक एवं बाह्य कारणों से व्यक्ति में परिवर्तन है।”

विकास के अभिलक्षण :-

>> विकास एक जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है, जो गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यन्त होती रहती है।

>> विकास बहु – आयामी (multi-dimensional) होता है

>> विकास बहुत ही लचीला होता है

>> विकासात्मक परिवर्तन ‘मात्रात्मक’ एवं गुणात्मक दोनों (quantitative) हो सकते हैं

>> विकासात्मक परिवर्तनों में प्रायः परिपक्वता में क्रियात्मकता (functional) के स्तर पर उच्च स्तरीय वृद्धि देखने में आती है

>> कुछ बच्चे अपनी आयु की तुलना में अत्यधिक पूर्व – चेतन (जागरूक) हो सकते हैं, जबकि कुछ बच्चों में विकास की गति बहुत धीमी

होती है।

विकास के आयाम / प्रकार :- 

 (a) शारीरिक विकास (Physical Development) :-

>> शरीर के बाह्य परिवर्तन; जैसे – ऊँचाई, शारीरिक अनुपात में वृद्धि इत्यादि जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, किन्तु शरीर के 

आन्तरिक अवयवों के परिवर्तन बाह्य रूप से दिखाई तो नहीं पड़ते, किन्तु शरीर के भीतर इनका समुचित विकास होता रहता है। 

>> प्रारम्भ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, धीरे – धीरे विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप 

वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता है। 

(b) मानसिक / संज्ञानात्मक विकास ( Mental / Cognitive Development ):-

>> कल्पना करना, स्मरण करना, विचार करना, निरीक्षण करना, अवलोकन, बुद्धितर्क, समस्या समाधान करना, निर्णय लेना इत्यादि 

की योग्यता मानसिक विकास के फलस्वरूप ही विकसित होते हैं। 

>> जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यता का अभाव होता है, धीरे – धीरे आयु बढ़ने के साथ – साथ उसमें मानसिक विकास की 

गति भी बढ़ती रहती है। 

पियाजे के अनुसार, 

संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएँ क्रमश: संवेदनात्मक गामक अवस्था, पूर्व संक्रियात्मक अवस्था, मूर्त – संक्रियात्मक अवस्था तथा

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था है।

(c) सांवेगिक विकास : –

>> संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि एवं विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। बालक का संवेगात्मक व्यवहार उसकी शारीरिक वृद्धि एवं

विकास को ही नहीं, बल्कि बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास को भी प्रभावित  करता है।

>> बालक के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है।

>> विद्यालय के परिवेश और क्रिया-कलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे

सकते हैं। 

(d) क्रियात्मक विकास :- 

>> क्रियात्मक विकास का अर्थ होता है – व्यक्ति की कार्य करने की शक्तियों, क्षमताओं या योग्यताओं का विकास करना। 

>> क्रियात्मक शक्तियों, क्षमताओं या योग्यताओं का अर्थ होता है ऐसी शारीरिक गतिविधियाँ या क्रियाएँ, जिनको सम्पन्न करने के लिए

माँसपेशियों (muscles) एवं तन्त्रिकाओं (nerves) की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है;

जैसे – चलना, बैठना इत्यादि। 

(e) भाषायी विकास :- 

>> भाषा  के माध्यम से बालक अपने मन के भावों  विचारों को एक – दूसरे के सामने रखता है एवं दूसरे के भावों, विचारों एवं 

भावनाओं को समझता है।

(f)  सामाजिक विकास :- 

>> सामाजिक विकास का शाब्दिक अर्थ होता है – समाज के अन्तर्गत रहकर विभिन्न पहलुओं को सीखना |

>> समाज के अन्तर्गत ही चरित्र निर्माण तथा जीवन से सम्बन्धित व्यावहारिक गुणों इत्यादि का विकास होता है। 

>> बालकों के विकास की प्रथम पाठशाला परिवार को माना गया है |

 वृद्धि (Growth):

>> वृद्धि (Growth) का अर्थ होता है बालकों की शारीरिक संरचना का विकास जिसके अन्तर्गत लम्बाई, भार, मोटाई तथा अन्य अंगों का

विकास आता है। 

>> वृद्धि की प्रक्रिया आन्तरिक एवं बाह्य दोनों रूपों में होती है

 वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-

(Factors affecting growth and development)

(1) पोषण (Nutrition)

(2) वृद्धि (Growth)

(3 ) वंशानुगत (Heredity)

(4) लिंग (Gender)

(5) वायु और प्रकाश (Air and Light)

(6) शारीरिक क्रिया (Physical activity)

(1) पोषण :-

 >> बालक को विकास के लिए उचित मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण इत्यादि 

की आवश्यकता होती है। 

>> हमारे खान – पान में उपयुक्त पोषक तत्त्वों की कमी होगी तो वद्धि एवं विकास प्रभावित होगा। 

(2) वृद्धि :-

>> वृद्धि यह विकास के अन्य कारकों में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक होता है , बौद्धिक विकास जितना उच्चतर होगा, हमारे अन्दर समझदारी,

नैतिकता, भावनात्मकता, तर्कशीलता इत्यादि का विकास उतना ही उत्तम होगा।

(3 ) वंशानुगत :-

>>  वंशानुगत (Heredity) स्थिति शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। माता – पिता के गुण एवं अवगुण का

प्रभाव बच्चों पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।

(4) लिंग :-

>>  सामान्यतया लड़के एवं लड़कियों में विकास के क्रम में विविधता देखी जाती है। किसी अवस्था में विकास की गति लड़कियों में तीव्र

होती है तो किसी अवस्था में लड़कों में।

(5) वायु एवं प्रकाश ( Air and Light):

>> शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ वायु की आवश्यकता होती है, अगर वायु स्वच्छ न मिले तो बालक बीमार हो सकता है एवं इनके

अभाव में कार्य करने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। 

>> शारीरिक विकास के लिए सूर्य के प्रकाश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि सूर्य के प्रकाश में विटामिन – डी की प्राप्ति होती है, जो

विकास के लिए अपरिहार्य है।

(6) शारीरिक क्रिया :

>> शारीरिक क्रिया जीवन को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम बहुत जरूरी है। यह मानव की आयु बढ़ाता है। यह व्यक्ति को सक्रिय

(Active) बनाए रखता है। 

 वृद्धि की अवस्थाएँ ( Growth Stages):- 

1. शैशवकाल  (Infancy)

2. बाल्यकाल (Childhood)

(ii) उत्तर बाल्यकाल 

(i) पूर्व बाल्यकाल 

 3. किशोरावस्था (Adolescence)

4. युवा प्रौढ़ावस्था (Young adulthood)

5. परिपक्व प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)

6. वृद्ध प्रौढ़ावस्था (Old Stage )

1. शैशवकाल :

>> इसमें जन्म से 2 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है। बालक इस अवस्था में पूर्णरूप से माता – पिता पर

आश्रित रहता है। 

>> इस अवस्था में संवेगात्मक विकास भी होता है तथा इस अवस्था में सीखने की क्षमता की गति तीव्र होती है। जब नवजात शिशु

शैशवकाल (Infancy) की ओर अग्रसर होता है, तो उसके अन्दर प्यार व स्नेह की आवश्यकता बढ़ने लगती है। 

2. बाल्यकाल

बाल्यकाल (Childhood) को निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है

(i) पूर्व बाल्यकाल 

>> सामान्यतया 2 से 6 वर्ष की अवस्था। बालकों का बाहरी जुड़ाव होने लगता है। बच्चों में (नकल करने की प्रवृत्ति) अनुकरण एवं दोहराने

की प्रवृत्ति पाई जाती है। 

>> समाजीकरण एवं जिज्ञासा दोनों में वृद्धि होती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह काल भाषा सीखने की सर्वोत्तम अवस्था है। 

(ii) उत्तर बाल्यकाल 

>> 6 से 12 वर्ष तक की अवस्था। इस अवस्था में बच्चों में बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक, तर्कशीलता इत्यादि का व्यापक विकास होता है। 

>> पढ़ने की रुचि में वृद्धि के साथ – साथ स्मरण क्षमता का भी विकास होता है। बच्चों में समूह भावना का विकास होता है अर्थात् समूह में

खेलना, समूह में रहना, समलैंगिक व्यक्ति को ही मित्र बनाना इत्यादि। 

 3. किशोरावस्था 

>> 12 से 18 वर्ष के बीच की अवस्था। अत्यन्त जटिल अवस्था तथा साथ ही व्यक्ति के शारीरिक संरचना में परिवर्तन देखने को मिलता है। 

>> इस अवस्था में किशोरों की लम्बाई एवं भार दोनों में वृद्धि होती है, साथ ही माँसपेशियों में भी वृद्धि होती है। 

>> 12 – 14 वर्ष की आयु के बीच लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई एवं माँसपेशियों में तेजी से वृद्धि होती है एवं 14 – 18 वर्ष की

आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की लम्बाई एवं माँसपेशियाँ तेजी से बढ़ती हैं। 

>> इस अवस्था में मित्र बनाने की प्रवृत्ति तीव्र होती है एवं सामाजिक सम्बन्धों में वृद्धि होती है।

4. युवा प्रौढ़ावस्था

>> 18 से 40 वर्ष तक। 

>> किशोरावस्था एवं युवा प्रौढ़ावस्था ( Adulthood) की कोई निश्चित उम्र नहीं होती। यह अवस्था मानव – विकास में एक निश्चित

परिपक्वता ग्रहण करने से प्राप्त होती है।

5. परिपक्व प्रौढ़ावस्था 

>> सामान्यतया 40 से 65 वर्ष की अवस्था। 

>> शारीरिक विकास में गिरावट आने लगती है अर्थात् बालों का सफेद होना. माँसपेशियों में ढीलापन तथा चेहरे पर झुर्रियाँ आना इत्यादि।

6. वृद्ध प्रौढ़ावस्था 

>> 65 से अधिक वर्ष की अवस्था। 

>> शारीरिक क्षमता का कमजोर होना। 

 अधिगम ( Learning) :

>> अधिगम ( Learning) का अर्थ होता है – सीखना।

>> अधिगम एक प्रक्रिया है, जो जीवन – पर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं

या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है। जन्म के तुरन्त बाद से ही बालक सीखना प्रारम्भ कर देता है।

>> अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

गेट्स के अनुसार,

अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।

ई.ए. पील के अनुसार,

“अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”

क्रो एवं क्रो के अनुसार,

“सीखना आदतों, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है।


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